Tuesday 18 April 2023

काश




 



काश कि जानां मिले ही ना होते, 
सहरा में यूं गुल खिले ही ना होते।

तुम अनजान होते, हम अनजान होते,
चले मोहब्बत के सिलसिले ही ना होते।

ना कदम यूँ बढ़ाते, ना मिलते-मिलाते,
ये इश्क, ये शिकवे-गिले ही ना होते।

इक दिल ही तो था जो अपना था,
तुम दिल ले के यूं चले ही ना होते।

मोहब्बत में सब कुछ भुलाने की चाहत,
ये दिल की लगी के चोंचले ही ना होते।

अमर प्रेम पहले कहानी थी लगती,
गर प्रेम दीप दिल मे जले ही ना होते।

काश कि जानां मिले ही ना होते,
हम-तुम जानां मिले ही ना होते।

~ प्रियंका सिंह 

Friday 24 February 2023

रात की कविता

एक नन्हीं कविता
रात दबे पाँव 
आई मेरे सिरहाने
धीरे से बोली कान में
आओ मुझे संवार दो
मुझे पृष्ठ पर उतार दो

मैं हल्की उनींदी
हटाती रही उसे 
जा री ओ नन्हीं
नींद आने को है
कल सुबह आना
तू भी सो जा ना

देर तलक
हाथ पकड़ वो
बैठी रही वहीं
मेरा माथा सहला
चुंबन गाल पर टिका
कब गई नहीं पता

सुबह वो लौटी नहीं 
उजाले में खो गई
शायद आये आज रात
चाँदनी रथ पर बैठ
परियों की तरह
अब ना जाने दूंगी
ओ नन्ही कविता...

~प्रियंका सिंह 


Thursday 13 October 2022

विश्वास

 








मुझे पसंद हैं करवा चौथ पर 

सजी-धजी स्त्रियां 

चटख साड़ी, बिंदी, मेहंदी, चूड़ियों 

के साथ उनकी खनकती हंसी 

और प्रेम भरी आंखें 

साथ ही उनका अटल विश्वास 

कि वो सक्षम हैं 

शायद ईश्वर से भी ज़्यादा। 


सुबह से रात तक भूखी-प्यासी 

वो नहीं दिखतीं विचलित 

वो जानती हैं कि 

इस भूख-प्यास को 

वो यूँ ही हरा देंगी 

जैसे हरा देती हैं 

असंख्य व्रतों में भूख को 

जैसे हरा ही देती हैं 

अपने इर्द-गिर्द बने दायरों को

कटाक्षों को, आक्षेपों को 

और जीत ही जाती हैं 

अपनी हिम्मत और विश्वास से। 


मैं कैसे तौलूं उन्हें 

पितृसत्ता या विश्वास 

के तराजू पर 

मेरा तौल कभी 

सही होगा ही नहीं 

क्यूंकि मेरे पास 

नहीं है वो बाट जो 

तौल दे प्रेम और विश्वास। 


सदा मज़बूत रहना स्त्रियों 

तुम ईश्वर से जीतने 

का विश्वास रखती हो 

संसार तो जीत ही लोगी 

उड़ लो अपनी उड़ान 

जीत लो हर जंग जो

अब तक कठिन लगती थी 

क्यूंकि मुश्किलें

विश्वास से बड़ी नहीं होती। 


~ प्रियंका सिंह 

Friday 23 September 2022

कुछ बे-हया औरतें








कुछ बे-हया औरतें
उतरी हैं सड़क पर
अपना चेहरा दिखातीं,
जल्दी ढको उन्हें
कि दिख ना जाए
उनका दर्द और उदासी

कुछ बे-हया औरतें
नहीं रहना चाहती
फूल सी नाजुक,
तोड़ डालो उन्हें 
कि बदल न जाएं
वो शोलों में

कुछ बे-हया औरतें
बोलने लगी हैं,
दबा दो ये आवाज़
इस से पहले कि
इनकी चीखें
कानों को चीर जाएं

कुछ बे-हया औरतें
मांगती हैं अपना हक
वो जीना चाहती हैं,
कुचल दो उन्हें
कि साँस लेने का हक
है सिर्फ मर्द को

कुछ बे-हया औरतें
बनना चाहती हैं इंसान,
मार डालो उन्हें
इस से पहले कि
वो बन जाएं
जानवर से इंसान

~ प्रियंका सिंह

Thursday 1 September 2022

चिट्ठी के ज़माने








वो दौर पुराने थे
चिट्ठी के ज़माने थे,
रंगीन कागज़ों पर
ढेरों अफ़साने थे,
मोहर लगी टिकटें
पते जाने-पहचाने थे,
प्रेम, गिले-शिकवे
सब दिल खोल बताने थे।

कुछ ख़तों में इक ख़त का
इंतज़ार भी होता था,
तहों के बीच फूल रख
इज़हार भी होता था,
जज़्बातों के सैलाबों का
मल्हार भी होता था,
बारिश में धुले हर्फ़ों पर भी
एतबार होता था।

वो चिट्ठी के ज़माने सी
बातें अब क्या होंगी,
वो इन्तज़ार के दिन
और रातें अब क्या होंगी,
प्रियतम के ख़त से बड़ी
सौगातें क्या होंगी,
इक पन्ने में सब कहने की
चाहतें क्या होंगी।

मीलों का सफ़र तय कर
दिल तक आ जाती थीं,
पल-पल की ख़बर ना मिले
पर सच्चा हाल बताती थीं,
वक़्त पर न सही पर
सही पते पर पहुंच ही जाती थीं,
डिलीट नहीं होती थीं
सहेज कर रखी जाती थीं।

हमें मोबाइल के दौर में भी
इक अदद चिट्ठी का इंतज़ार है,
जो गुज़र गया बरसों पहले
उस चिठ्ठी के ज़माने से प्यार है।

~ प्रियंका सिंह

Wednesday 6 July 2022

ख़त

 





उस ऊंची पहाड़ी पर  

बादलों के बीच घिर 

चमकीली पोटली से निकाल 

एक बार फिर पढ़े 

कुछ बरसों पुराने ख़त,

कहीं-कहीं गिरी थीं 

कुछ बूंदे आंसुओं की 

स्याही मिटी नहीं थी अभी 

खुशबू भी बरकरार थी

लेकिन उम्मीद नहीं। 


मीलों फैले पहाड़ 

छू-छू कर जाते बादल 

नीले आसमान के तले 

उन्हें पढ़ा कई-कई बार,

फिर एक आख़िरी बार 

जोर से सीने से लगा  

बहती हवाओं के साथ 

उन्हें रिहा कर दिया

साथ ही रिहा कर दिये 

यादों के अनगिनत जुगनू। 


दूर तलक उड़ते वो ख़त 

ज्यूं साँझ होते ही 

घरों को लौटते पंछी 

या तेज़ हवाओं में 

शाख़ों से टूटते पत्ते, 

आँखों से ओझल होते 

ख़्वाब, ख्वाहिशें, प्रेम 

जो छूट जाएं तो 

कभी लौटते नहीं। 


उनकी खुशबू अब 

घुल गई फ़िज़ाओं में 

उनके हर्फ़ मिल गए 

बादलों की स्याही में,

हवाओं के संग 

इठलाते उन ख़तों ने 

छुए होंगे कई पेड़ 

मिले होंगे पत्तों संग

बहे होंगे किसी 

झरने की धार में,

धुल तो गई होगी 

अब उनकी स्याही

उनकी खुशबू में 

अब मिल गई होगी 

ओस की खुशबू 

और चीड़ के पेड़ों की। 


बरसों पोटली में बंद 

वो ख़त मेरी तरह 

आज छुए उन्होंने भी 

आकाश, पहाड़, पेड़, नदी 

आज उनका और मेरा 

नया जन्म हुआ

कभी प्रकृति के संग 

लिखे गये ख़त 

आज फिर से 

मिल गए प्रकृति में। 


~ प्रियंका सिंह

Monday 30 May 2022

भय का खूँटा





रस्मों, रीति- रिवाजों के

बंधनों में बंधी स्त्री,

पहले छटपटाती फिर

स्वयं उनमें बंध जाती,

कब उनके मोह में पड़ जाती

थाह भी ना पाती।

 

सोलह सोमवार से शुरू

उत्तम वर की चाह,

करवा चौथ के

कठिन व्रत में बदलती,

आस्था के नाम पर हर वर्ष

प्रेम की अग्निपरीक्षा देती।

वो भूखी निर्जल देह,

चमकती साड़ी और मेकअप तले

अपमान को दबा,

प्रेम और सम्मान को तरसती

सखियों संग दमकती

अगली सुबह से

फिर पिटती और खटती।

 

सपूत हो या कुपूत

अहोई- जितिया तो होगा ही,

उसके जन्म के बाद से ही

पुत्र-प्रेम की परीक्षा भी

स्त्री ही तो देगी,

जैसे जन्म देना परीक्षा नहीं।

पुत्र कलह करे या मारे,

तो भी अहोई तो होगा

या सात समंदर पार से

बात भी ना कर पाएगा,

व्रत के रूप में

माँ की प्रेम-परीक्षा पाएगा।

 

स्त्रियाँ बंधी हैं व्रतों से

रीति-रिवाजों से,

ज्यूं बंधी हो

खूंटे से कोई गाय,

शिक्षा भी इस खूंटे को

तोड़ नहीं पाए।

 

कई नाम दिए इस खूंटे को,

प्रेम, आस्था, संस्कृति, रिवाज

पर असल नाम भय है।

जिसे बचपन से

स्त्री मन में रोपा जाता है

एक बीज की तरह,

सींचा जाता है ताउम्र

एक पौधे की तरह,

और विवाहोपरांत

पेड़ बनने दिया जाता है

गहरी जड़ों वाला

जिसकी विशाल टहनियों पर टंगते

बिछुए, मंगलसूत्र, बिंदी, चूड़ियां,

और रस्मों रिवाजों की

एक बड़ी सी काली गठरी।

 

चाह कर भी स्त्री

भय के खूंटे से छूटती नहीं

क्यूंकि भय ने ही तो

उसे तराशा है

उम्र के हर पड़ाव पर

भय ने उसे उसकी

हद बताई है

एक लड़की की तरह

पत्नी और बहू की तरह

फिर माँ की तरह

 

स्त्री को कब भय का

खूँटा तोड़ने दिया?

जो भय का खूंटा तोड़ दे

तो स्त्री, स्त्री ना रहेगी

पुरुष ही ना हो जाएगी!


प्रियंका सिंह